चना की खेती
चना भारतवर्ष में उगाई जाने वाली रवी की एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने में लगभग 21% प्रोटीन 61% कार्बोहाइड्रेट तथा 4.5 % वसा पाई जाती है। इसके अलावा इसमें कैल्शियम तथा आयरन भी पाया जाता है इसका प्रयोग मुख्य रूप से दाल तथा रोटी और बेसन बनाने में किया जाता है चने को हम भूनकर भी खा सकते हैं चने की हरी पत्तियां और दानों का प्रयोग सब्जियों के रूप में किया जाता है चना घोड़ों का मुख्य आहार है इस के भूसे में मौलिक अम्ल तथा ऑक्जेलिक अम्ल पाए जाते हैं। इसकी जड़ों में पाई जाने वाली ग्रंथियां वातावरण में नाइट्रोजन जैसी उर्वरक पदार्थों को बढ़ाती हैं।
चना उत्पादन करने वाले क्षेत्र
भारत में चना उगाने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश क्षेत्रफल एवं उत्पादन दोनों दृष्टि से आगे है चुनाव आने वाले राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र ,आंध्र प्रदेश, बिहार हैं प्रति हेक्टेयर चना उत्पादन में आंध्र प्रदेश का प्रथम स्थान है। उत्तर प्रदेश में चने की खेती मुख्य रूप से बांदा हमीरपुर जालौन झांसी कानपुर चित्रकूट एवं हरदोई जैसे जिलों में की जाती है भारत में इसकी खेती 8 पॉइंट 17 मिलीयन हेक्टेयर पर की जाती है जिससे कुल 17 पॉइंट 48 मिलियन टन चना पैदा होता है।
जलवायु--------: चना एक दीर्घकालीन फसल है चने की खेती के लिए शुष्क तथा सामान्य ठंडक वाली जलवायु उपयुक्त होती है पाले से इस फसल में काफी नुकसान होता है अंकुरण के लिए 20 से 25 सेंटीग्रेड तापमान उचित होता है। वृद्धि के लिए ठंडक की लंबी अवधि तथा पकते समय 25 से 30 सेंटीग्रेड तापमान की आवश्यकता पड़ती है इसके लिए कम वर्षा वाला क्षेत्र अधिक उपयुक्त होता है।
चने के लिए उपयुक्त भूमि---
चने की खेती के लिए दोमट या भारी दोमट अथवा पड़वा भूमि जहां पर जल निकास का उचित प्रबंध हो ऐसी भूमि अधिक उपयुक्त होती है देसी चने की खेती के लिए विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन काबुली चने के लिए 1 जुताई मिट्टी पलट हल से तथा एक से दो जुताइयां कल्टीवेटर से कराना उचित रहता है। चने को हम अपने घर पर किसी गमले या मिट्टी के बर्तन में भी उगा सकते हैं।
चने की प्रमुख जातियां--
गुजराती चना, पूसा चमत्कार ,हरियाणा चना, जवाहर चना, काबुली चना ,पन्त जी-186, पूसा- 372, सदाबहार चना,।
चने बोने का समय----
मैदानी क्षेत्रों में चने की बुवाई अक्टूबर के दूसरे तथा तीसरे सप्ताह में करनी चाहिए जबकि सिंचित दशा में तथा तराई क्षेत्रों में जहां पानी की कमी होती है। इसमें चने की बुवाई नवंबर के प्रथम एवं दूसरे सप्ताह में करनी चाहिए।
चने बोने की विधि--
चने की बुवाई हल्के पीछे अथवा सीड ड्रिल से की जाती है। असिंचित दशा में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी तथा सिंचित दशा में एवं काबुली चने के लिए पंक्ति की दूरी लगभग 45 से मी होनी चाहिए। बीज को खेत में लगभग 6 से 8 सेमी गहराई पर बोना चाहिए।
खाद तथा उर्वरक
दलहनी फसल होने के कारण चने को अधिक नाइट्रोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती । सभी किस्मों में बुवाई के समय ही 15 से 20 किलोग्राम नाइट्रोजन 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस और असिंचित क्षेत्रों में 20 से 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। ,गंधक की 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से उपज में अच्छी वृद्धि होती है। असिंचित क्षेत्रों में 2% यूरिया तथा डीएपी का, फूल आते समय छिड़काव करना लाभदायक होता है।
सिंचाई--
चने के खेत में पहले से चाहिए आवश्यकता अनुसार 30 से 40 दिन पर फूल आने से पहले तथा दूसरी सिंचाई फलियों में दाना बनते समय करनी चाहिए। फूलने के समय सिंचाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फूल झड़ जाते हैं शीतकालीन वर्षा होने पर खेत से जल निकास की उचित व्यवस्था करनी चाहिए।
निराई गुड़ाई तथा खरपतवार नियंत्रण--
बीज बोने की 30 से 35 दिन बाद पहली निराई गुड़ाई खरपतवार नियंत्रण के उद्देश्य से करना बहुत ही आवश्यक है। खरपतवारो का नियंत्रण रासायनिक विधि से किया जा सकता है,। 2 किलो वेसालिन को 1000 लीटर पानी में घोलकर बोने से पहले खेत में छिड़कर नम मिट्टी में अच्छी तरह से मिला देना चाहिए।
चने की कटाई--
चने को सब्जी के उद्देश्य से फसल की कटाई होने के लगभग 120 दिन बाद धोनी जब सख्त होने प्रारंभ होते हैं उस समय काट ली जाती है इसकी फसल 150 से 170 दिन में पक कर तैयार हो जाती है इसकी कटाई हसिया तथा दरांती की सहायता से करते हैं। भंडारण में रखने के लिए 10 से 12% नमी सोख आने के बाद रह जाए तो भंडारण कर देते हैं।
चने के प्रमुख कीट रोग एवं उन पर नियंत्रण--
1- कटुआ कीट-----: इसकी सुँड़ियां रात के समय पौधे को जमीन की सतह से काट देती है
इसकी रोकथाम के लिए बोने से पहले खेत में 5% एल्ड्रिन या 1.3 % लिण्डेन धल की 20से 25 किलोग्राम मात्रा /हक्टेयर अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।
इसकी रोकथाम के लिए बोने से पहले खेत में 5% एल्ड्रिन या 1.3 % लिण्डेन धल की 20से 25 किलोग्राम मात्रा /हक्टेयर अच्छी तरह मिला देनी चाहिए।
2 फली छेदक कीट---: इसकी सूडी चने की फलियों में छेद कर दाने को खा जाती है।
रोकथाम-- इसके जैविक नियंत्रण के लिए एंडोसल्फान 35 ई सी 1.25 लीटर मात्रा को 800 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अंतर पर दो बार छिड़काव करना चाहिए।
3 उकठा रोग-----: चने का यह सबसे भयंकर रोग है इस बीमारी से पौधे मुरझा कर सूख जाते हैं यदि पौधों की जड़ों को बीच से चीर कर देखा जाए तो अंदर जड़े काली या भूरे रंग की दिखाई देती है।
रोकथाम --
(1) रोग रोधी किस्मों को उगाना चाहिए।
(2)- दीर्घकालीन फसल चक्र अपनाना चाहिए।
(3)- 2.5 किलोग्राम ट्राइकोडरमा तथा 50 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाना।
(1) रोग रोधी किस्मों को उगाना चाहिए।
(2)- दीर्घकालीन फसल चक्र अपनाना चाहिए।
(3)- 2.5 किलोग्राम ट्राइकोडरमा तथा 50 किलोग्राम गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाना।
4 झुलसि या अंगमारी---' यह भी फफूंदी जनित रोग है इसमें फूल निकलने से पहले पत्तियों पर तथा फूलों पर गहरे भूरे रंग के जब भी दिखाई देते हैं। फलियां नहीं बनती या बनकर सूख जाती हैं।
रोकथाम--(1) रोग रोधी किस्मो को उगाना।
(2)-उचित फसल चकृ अपनाना।
(3) रासायनिक पदार्थ का उपयोग करना ।
(2)-उचित फसल चकृ अपनाना।
(3) रासायनिक पदार्थ का उपयोग करना ।
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